टूटता हूँ बिख़र जाता हूँ
रोज़ सुबह उठकर
फ़िर से वोही मैं
वोही 'मैं' बन जाता हूँ|
ना सोता हूँ
ना ही जाग पाता हूँ
फ़िर से सपनो में
कहीं खो सा जाता हूँ |
ना भटक़ पाता हूँ
ना मंज़िल तक पहुँच पाता हूँ
बस इन्ही अनजान राहों में
कुछ गुम सा हो जाता हूँ |
सोचना क्या है
बस यही तोह भूल जाता हूँ
खुदही में
'खुद' को दूंढ़ नहीं पाता हूँ |
रोज़ सुबह उठकर
फ़िर से वोही मैं
वोही 'मैं' बन जाता हूँ|
ना सोता हूँ
ना ही जाग पाता हूँ
फ़िर से सपनो में
कहीं खो सा जाता हूँ |
ना भटक़ पाता हूँ
ना मंज़िल तक पहुँच पाता हूँ
बस इन्ही अनजान राहों में
कुछ गुम सा हो जाता हूँ |
सोचना क्या है
बस यही तोह भूल जाता हूँ
खुदही में
'खुद' को दूंढ़ नहीं पाता हूँ |
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